कांशीराम ने 'बामसेफ' और 'डीएस-4' के जरिए बीएसपी की स्थापना की, जो आज बड़ी सियासी ताकत है.
उन्होंने दबे-कुचले लोगों को सत्ता में भागीदार बनाने का जो सपना देखा था वो अब साकार हो रहा है
डॉ. बीआर आंबेडकर के बाद दलितों के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले कांशीराम की आज 12वीं पुण्यतिथि है. पिछड़े, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और कर्मचारियों के बीच डीएस4 नामक संगठन के जरिए वे बड़े दलित नेता के रूप में उभरे.
उनके जीवन में ऐसा भी वक्त आया जब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया. लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. इसके पीछे उनकी एक बड़ी सोच थी. वरना इतना बड़ा ऑफर कोई शायद ही ठुकराता.
अटल बिहारी वाजपेयी हर किसी को साधकर चलते थे. हर पार्टी में, हर विचारधारा के लोग उनके दोस्त थे. उनका एक दिलचस्प वाकया कांशीराम से भी जुड़ा है. वे कांशीराम को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. इसके पीछे सियासी वजह थी.
कांशीराम की जीवनी 'कांशीराम: द लीडर ऑफ द दलित्स' लिखने वाले बद्रीनारायण कहते हैं " हां, ये बात सही है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया था.”
“यह उस वक्त की बात है जब यूपी में बसपा-भाजपा की मिलीजुली सरकार चल रही थी. उस वक्त दोनों दलों में अच्छे संबंध थे. वाजपेयी के ऑफर के बारे में खुद कांशीराम कहा करते थे." आखिर कांशीराम ने इतने बड़े पद का प्रस्ताव क्यों ठुकराया?
इस सवाल के जवाब में नारायण ने कहा "वाजपेयी के प्रस्ताव को कांशीराम ने इसलिए ठुकरा दिया था क्योंकि वे जानते थे कि असली पावर राष्ट्रपति में नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के पद में है. वह जानते थे कि राष्ट्रपति बनाकर उन्हें चुपचाप बैठा दिया जाएगा. इसके लिए वह तैयार नहीं थे. इसीलिए तब कांशीराम ने वाजपेयी से कहा था कि वह राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं."
कांशीराम का नारा था, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.' वह देश के दलितों को सत्ता का केंद्रबिंदु बनाना चाहते थे. ऐसे में वह केवल राष्ट्रपति बनकर मूक नहीं बनना चाहते थे. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वाजपेयी कांशीराम के लक्ष्य को समझ नहीं पाए. कांशीराम का असली उद्देश्य देश के दलित समाज को उच्च पदों पर आसीन करना था.
कांशीराम ने मायावती को देश की पहली दलित महिला मुख्यंमत्री बनाकर अपने सपने को सच भी कर दिखाया. कांशीराम ने अछूतों और दलितों के राजनीतिक एकीकरण के लिए जीवनभर काम किया. समाज के दबे-कुचले वर्ग के लिए एक ऐसी जमीन तैयार की जहां पर वे अपनी बात कह सकें.
कांशीराम ने वर्ष 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. इसका गठन समाज के दबे-कुचले लोगों के हित और सत्ता में भागीदारी के उद्देश्य से किया. सियासी जानकारों का मानना है कि इस पार्टी का जन्म कांशीराम के माध्यम से दलित सरकारी कर्मचारियों के हितों के लिए चलाए जा रहे एक गैर-सरकारी संगठन से हुआ.
उन्होंने दबे–कुचले लोगों की स्थिति जानने के लिए देश का भ्रमण किया. फिर वर्ष 1978 में 'बामसेफ' नामक संगठन बनाया. उसके बाद उन्होंने बौद्ध रिसर्च सेंटर (बीआरसी) और दलित-शोसित समाज संघर्ष समिति यानी 'डीएस-4' बनाया. फिर बीएसपी की स्थापना की. वे पार्टी के पहले अध्यक्ष भी थे. 15 मार्च 1934 को पंजाब में जन्मे कांशीराम का 9 अक्टूबर 2006 को निधन हो गया था.
कांशीराम और मुलायम के अच्छे संबंध थे. मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम...! 1993 में कांशीराम-मुलायम सिंह की दोस्ती के बाद यह नारा लगा था. नजीता यह हुआ था कि दलित और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी से सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी. हिन्दुत्व का एजेंडा धरा का धरा रह गया था.
उन्होंने दबे-कुचले लोगों को सत्ता में भागीदार बनाने का जो सपना देखा था वो अब साकार हो रहा है
डॉ. बीआर आंबेडकर के बाद दलितों के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले कांशीराम की आज 12वीं पुण्यतिथि है. पिछड़े, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और कर्मचारियों के बीच डीएस4 नामक संगठन के जरिए वे बड़े दलित नेता के रूप में उभरे.
उनके जीवन में ऐसा भी वक्त आया जब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया. लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए. इसके पीछे उनकी एक बड़ी सोच थी. वरना इतना बड़ा ऑफर कोई शायद ही ठुकराता.
अटल बिहारी वाजपेयी हर किसी को साधकर चलते थे. हर पार्टी में, हर विचारधारा के लोग उनके दोस्त थे. उनका एक दिलचस्प वाकया कांशीराम से भी जुड़ा है. वे कांशीराम को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. इसके पीछे सियासी वजह थी.
कांशीराम की जीवनी 'कांशीराम: द लीडर ऑफ द दलित्स' लिखने वाले बद्रीनारायण कहते हैं " हां, ये बात सही है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का ऑफर दिया था.”
“यह उस वक्त की बात है जब यूपी में बसपा-भाजपा की मिलीजुली सरकार चल रही थी. उस वक्त दोनों दलों में अच्छे संबंध थे. वाजपेयी के ऑफर के बारे में खुद कांशीराम कहा करते थे." आखिर कांशीराम ने इतने बड़े पद का प्रस्ताव क्यों ठुकराया?
इस सवाल के जवाब में नारायण ने कहा "वाजपेयी के प्रस्ताव को कांशीराम ने इसलिए ठुकरा दिया था क्योंकि वे जानते थे कि असली पावर राष्ट्रपति में नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के पद में है. वह जानते थे कि राष्ट्रपति बनाकर उन्हें चुपचाप बैठा दिया जाएगा. इसके लिए वह तैयार नहीं थे. इसीलिए तब कांशीराम ने वाजपेयी से कहा था कि वह राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं."
कांशीराम का नारा था, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.' वह देश के दलितों को सत्ता का केंद्रबिंदु बनाना चाहते थे. ऐसे में वह केवल राष्ट्रपति बनकर मूक नहीं बनना चाहते थे. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि वाजपेयी कांशीराम के लक्ष्य को समझ नहीं पाए. कांशीराम का असली उद्देश्य देश के दलित समाज को उच्च पदों पर आसीन करना था.
कांशीराम ने मायावती को देश की पहली दलित महिला मुख्यंमत्री बनाकर अपने सपने को सच भी कर दिखाया. कांशीराम ने अछूतों और दलितों के राजनीतिक एकीकरण के लिए जीवनभर काम किया. समाज के दबे-कुचले वर्ग के लिए एक ऐसी जमीन तैयार की जहां पर वे अपनी बात कह सकें.
कांशीराम ने वर्ष 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया. इसका गठन समाज के दबे-कुचले लोगों के हित और सत्ता में भागीदारी के उद्देश्य से किया. सियासी जानकारों का मानना है कि इस पार्टी का जन्म कांशीराम के माध्यम से दलित सरकारी कर्मचारियों के हितों के लिए चलाए जा रहे एक गैर-सरकारी संगठन से हुआ.
उन्होंने दबे–कुचले लोगों की स्थिति जानने के लिए देश का भ्रमण किया. फिर वर्ष 1978 में 'बामसेफ' नामक संगठन बनाया. उसके बाद उन्होंने बौद्ध रिसर्च सेंटर (बीआरसी) और दलित-शोसित समाज संघर्ष समिति यानी 'डीएस-4' बनाया. फिर बीएसपी की स्थापना की. वे पार्टी के पहले अध्यक्ष भी थे. 15 मार्च 1934 को पंजाब में जन्मे कांशीराम का 9 अक्टूबर 2006 को निधन हो गया था.
कांशीराम और मुलायम के अच्छे संबंध थे. मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम...! 1993 में कांशीराम-मुलायम सिंह की दोस्ती के बाद यह नारा लगा था. नजीता यह हुआ था कि दलित और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी से सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी. हिन्दुत्व का एजेंडा धरा का धरा रह गया था.
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