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Thursday, November 15, 2018

इस बार छत्तीसगढ़ में न तो कांग्रेस न बीजेपी, जाने विस्तार से

साल 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होने के बाद से ही छत्तीसगढ़ में चुनावी गणित बदलता रहा है|18 सालों में कांग्रेस और बीजेपी के पारंपरिक वोट कम हुए हैं|

छत्तीसगढ़ में 31 फीसदी एसटी, 11.6 फीसदी एससी, 45 फीसदी ओबीसी और करीब 10 फीसदी अगड़ी जाति के लोग हैं|आमतौर पर एसटी उत्तरी और दक्षिणी छत्तीसगढ़ में रहते हैं और एससी मूल रूप से महानदी के मैदानी इलाके में रहते हैं. ओबीसी लोग लगभग पूरे प्रदेश में फैले हुए हैं|
साल 2000 में जब छत्तीसगढ़ बना उस वक्त कांग्रेस के पास 90 में से 48 सीटें थीं| इनमें से 22 सीटें आदिवासी बहुल वाले सरगुजा और बस्तर इलाकों से थीं. इसका ये अर्थ है कि आदिवासी इलाकों की 26 सीटों में से 22 सीटें कांग्रेस के पास थीं| इनमें से सिर्फ एक सीट छोड़कर बाकी की सारी सीटें एसटी के लिए आरक्षित थीं. बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग क्षेत्रों की कुल 64 सीटों में से बीजेपी के पास 32 और कांग्रेस के पास 29 सीटें थीं|
बीजेपी को सरगुजा-बस्तर क्षेत्र के आदिवासी बहुल इलाके वाले 26 सीटों में से 20 मिल गईं जबकि कांग्रेस ने बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग क्षेत्र में बढ़त हासिल की. 2008 में भी लगभग यही हालत रही| पर 2013 के चुनाव में स्थितियां फिर से बदल गईं| सरगुजा-बस्तर क्षेत्र में कांग्रेस ने अपनी खोई हुई शक्ति को फिर से कुछ हद तक हासिल की| कांग्रेस को इस इलाके की 26 सीटों में से 15 सीटें मिलीं. लेकिन वह अपनी काफी मौजूदा सीटों को बचाने में नाकामयाब रही| अपनी मौजूदा 37 सीटों में 26 सीटें कांग्रेस हार गई| स्थानीय स्तर पर सत्ता विरोधी लहर के कारण बीजेपी को भी नुकसान हआ और पांच मंत्रियों समेत बीजेपी के कई विधायक चुनाव हार गए|
छत्तीसगढ़ में पिछले 18 सालों में हुए इस तरह के राजनीतिक परिवर्तन को समझने के लिए लोकसभा चुनावों के पैटर्न को भी समझना होगा. 2004, 2009 और 2014 के चुनाव में कुल 11 सीटों में से 10 सीटें कांग्रेस या बीजेपी के खाते में गई. इन चुनावों में लोगों ने या तो बीजेपी या कांग्रेस को वोट दिया. लेकिन विधानसभा चुनाव में स्थिति अलग थी. काफी सीटों पर कांग्रेस या बीजेपी से अलग किसी अन्य पार्टी के उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी|
2018 में स्थितियां और भी बदल गई हैं. लगभग हर सीट पर बीजेपी और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है. यहां तक कि जोगी-बीएसपी गठबंधन या अरविंद केजरीवाल की पार्टी के उम्मीदवार भी ऐसे हैं जिनकी स्थानीय स्तर पर काफी पकड़ है|
अब अगर ये माना जाए कि रमन सिंह सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है तो कांग्रेस के पास सीएम के पद के लिए कोई विकल्प नहीं है| इसलिए सत्ता विरोधी फैक्टर भी स्थानीय स्तर पर ही काम करेगा. जिसकी वजह से यह बात काफी महत्तवपूर्ण हो जाती है कि ज़मीनी स्तर पर किसी उम्मीदवार की कितनी पकड़ है. उदाहरण के लिए बीजेपी ने बेलतारा से वहां के मौजूदा पार्टी के विधायक को टिकट देने के बजाय पार्टी के जिलाध्यक्ष रजनीश सिंह को टिकट दिया है| कांग्रेस ने भी एक ओबीसी उम्मीदवार को टिकट दिया है| जोगी-बीएसपी गठबंधन ने पंजाबी ब्राह्मण को टिकट दिया है जिसकी वजह से बीजेपी का पारंपरिक वोट कट सकता है| बीएसपी का समर्थन होने के कारण कांग्रेस का दलित वोट भी कट सकता है| अलकतारा में जोगी की पुत्रवधू बीएसपी के टिकट पर लड़ रही हैं और उन्हें जनता का काफी अच्छा समर्थन भी मिल रहा है. हालांकि यहां बीजेपी का उम्मीदवार भी काफी मज़बूत है. अब यहां जीत का परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस के मौजूदा विधायक किस तरह से प्रदर्शन करते हैं| अब अगर वह कांग्रेस के पारंपरिक वोटों को अपने पक्ष में रख पाने में कामयाब रह पाते हैं तो बीजेपी को फायदा हो सकता है लेकिन अगर वो ऐसा नहीं कर पाते तो अजीत जोगी की पुत्रवधू को फायदा हो सकता है| हालांकि इस त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस को फायदा पहुंच सकता है|

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